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    26.09.2023 : स्वामी रामानंद तीर्थ मराठवाड़ा विश्वविद्यालय, नांदेड़ द्वारा जनजातीय अध्ययन पर दूसरा कुलपतियों का सम्मेलन

    प्रकाशित तारीख: September 26, 2023

    स्वामी रामानंद तीर्थ मराठवाड़ा विश्वविद्यालय, नांदेड़ द्वारा जनजातीय अध्ययन पर दूसरा कुलपतियों का सम्मेलन, राजभवन मुंबई, 26 सितंबर, 2023 / 1100 बजे

    श्री मधुकरराव पडवी, कुलपति, बिरसा मुंडा जनजातीय विश्वविद्यालय, राजपीपला, गुजरात

    श्री हरीश चव्हाण, पूर्व अध्यक्ष, राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग, भारत सरकार

    डॉ. उद्धव भोसले, कुलपति, स्वामी रामानंद तीर्थ मराठवाड़ा विश्वविद्यालय, नांदेड़

    महाराष्ट्र के विभिन्न विश्वविद्यालयों के कुलपति

    जनजाति विकास से जुड़े अध्यापक गण

    अधिकारी गण,

    देवियो और सज्जनो

    सबसे पहले, मैं आप सभी का राजभवन में हार्दिक स्वागत करता हूँ।

    स्वामी रामानंद तीर्थ मराठवाड़ा विश्वविद्यालय द्वारा ‘जनजातीय अध्ययन’ पर आयोजित दूसरे कुलपतियों के सम्मेलन के साथ जुड़कर खुशी हो रही है।

    भारत ने स्वतंत्रता के अमृत काल में कदम रखा है। स्वतंत्रता की शताब्दी के वर्ष याने, 2047 तक, भारत एक विकासशील राष्ट्र बनने की आकांक्षा रखता है।

    यह तभी संभव होगा जब हम समाज के सभी वर्गों, विशेष रूप से अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, घुमंतू जनजाति, दिव्यांगजन, समाज के हाशिए पर रहने वाले लोगों जैसे ट्रांसजेंडर, अल्पसंख्यकों और समाज के विभिन्न वर्गों की महिलाओं के जीवन स्तर को ऊपर उठाएंगे।

    विश्वविद्यालयों के कुलाधिपति के रूप में, मैं मानता हूं कि, हमारे राज्य विश्वविद्यालयों को विशेष रूप से, आदिवासी समुदायों को सशक्त बनाने में अपनी भूमिका निभानी चाहिए।

    ऐसे कई तरीके हैं जिनसे यह किया जा सकता है।

    हम जनजाति समाज के साथ जुड़कर, आदिवासी गांवों को गोद लेकर, कौशल विकास और कौशल उन्नयन में उनकी सहायता करके जनजाति सशक्तिकरण में अपना योगदान दे सकते हैं।

    वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार, महाराष्ट्र में आदिवासियों की जनसंख्या एक करोड़ से अधिक है, जो राज्य की कुल जनसंख्या का लगभग 9.35 प्रतिशत है।

    महाराष्ट्र में कम से कम 13 जिले ऐसे हैं जिनमें अनुसूचित जनजातियों की अच्छी-खासी आबादी है। इन क्षेत्रों को अनुसूचित क्षेत्र के रूप में जाना जाता है।

    महाराष्ट्र के राज्यपाल के रूप में, मेरे पास संविधान की अनुसूची पांच के तहत राज्य में अनुसूचित जनजातियों के कल्याण का अधिकार और दायित्व है।

    संविधान के अनुच्छेद 244 (1) में राज्य के अनुसूचित क्षेत्रों में राज्यपाल की विशेष जिम्मेदारियों और भूमिका का उल्लेख है। संविधान द्वारा राज्यपाल को प्रदत्त इन शक्तियों ने उन्हें राज्य के अनुसूचित क्षेत्रों में रहने वाले लोगों के व्यापक हित में उपयुक्त निर्देश जारी करने और यहां तक कि केंद्र शासन ने बनाये नियमों में भी संशोधन करने में सक्षम बनाया है।

    आदिवासियों के व्यक्तिगत और सामुदायिक वन अधिकारों के संबंध में महाराष्ट्र में उल्लेखनीय काम किया गया है।

    विशेष रूप से अति आदीम ऐसे, कातकरी समुदाय से संबंधित कारीगरों और भूमिहीन मजदूरों के लिए आवास भूमि को नियमित करने के मुद्दे को मेरे पूर्व सम्मानित राज्यपालों ने संबोधित किया गया।

    मेरी जानकारी के अनुसार, कातकरी जनजाति के कुल 23,140 भूमिहीन कारीगर उस भूमि के मालिक बन गए जिस पर उनके घर बने थे। इससे विशेष रुप से कमजोर जनजातीय समूह का उनके मूल निवास स्थान से पलायन रोकने में मदद मिली है।

    लेकिन, हमारे जनजातीय समुदायों को समृद्ध और सशक्त बनाने के लिए अभी भी बहुत कुछ किया जाना बाकी है।

    भारत में ७०० से भी अधिक जनजातियां है। जिनमे से प्रत्येक की अपनी अलग बोली भाषा है, लोक कथाएं है, नृत्य है, और सामाजिक संरचना है।

    जनजाति हमारे प्रकृती रक्षक है। संस्कृति रक्षक है। लेकिन, अंग्रेज शासकों ने उनके बारे में जंगली, अनपढ और पिछडे जैसे शब्दो का प्रयोग किया।

    हाल ही में मैंने पुणे के पास पिंपरी की अपनी यात्रा के दौरान ‘पुनरुत्थान समरसता गुरुकुलम’ का दौरा किया था।

    गुरुकुलम संस्था, अंग्रेजों द्वारा ‘आपराधिक जनजाति’ करार किए गये, ऐसे जनजाति के 350 बच्चों की शिक्षा और देखभाल कर रही है।

    क्या आप जानते हैं कि कुछ जनजातियों को अंग्रेजों ने आपराधिक जनजातियों के रूप में क्यों लेबल किया था ?

    हमारे आदिवासी बहन भाईयों ने, अंग्रेजों द्वारा हमारे जंगलों और अन्य प्राकृतिक संसाधनों के शोषण का विरोध किया।

    अंग्रेजों ने उन्हें ‘आपराधिक जनजाति’ करार दिया ताकि वे उन्हें बिना पूछताछ के जेल में डाल सकें। दुर्भाग्यवश, आज भी समाज में कुछ जनजाति समुदाय की ओर देखने का नजरिया बदला नहीं है।

    इसलिए सबसे पहली और महत्वपूर्ण बात जो हम सभी को करनी चाहिए, वह है, अपने आदिवासियों और अनुसूचित जनजातियों के प्रति अपनी धारणा को बदलना।

    हमें औपनिवेशिक आकाओं द्वारा अपनाए गए दृष्टिकोण से जनजातीय अध्ययन नहीं करना चाहिए।

    जनजातीय विकास के लिए जनजातीय आजीविका बहुत महत्वपूर्ण मुद्दा है। अधिकतर ये आदिवासी समुदाय प्रकृति की गोद में और प्राकृतिक संसाधनों के बहुत करीब रहते हैं। वे जंगल, नदियों, पहाड़ों और संसाधनों के आसपास रहते हैं। इन जनजातीय समुदायों का प्रकृति और संसाधनों के साथ बहुत घनिष्ठ, जैविक और रचनात्मक संबंध है।

    वे प्रकृति, पहाड़ों, पेड़ों, नदियों की पूजा करते थे और आज भी करते है। इस प्रकार, आदिवासी स्थानों में कई पवित्र उपवन और पेड़ संरक्षित हैं। ये पवित्र उपवन और पेड़ उच्च औषधीय और आर्थिक मूल्यों से समृद्ध हैं। वे पीढ़ी-दर-पीढ़ी संरक्षित हैं।

    आदिवासी क्षेत्रों में भूमि के सवाल, गरीबी, पुनर्वास के मुद्दे, कुपोषण, बड़े पैमाने पर पलायन और अशिक्षा जैसे मुद्दे अनसुलझे हैं।

    अभी भी वन अधिकार अधिनियम के तहत भूमि अधिकार के कई मुद्दे और मामले प्रलंबित हैं, जनजातियों के बीच अभी भी ऋण ग्रस्तता, बंधुआ मजदूरी, गरीबी और भूख आदि समस्याए बनी हुई हैं। कुपोषण, विस्थापन, स्थानांतरगमन, स्वास्थ्य समस्याएं बनी हुई है।

    आदिवासियों के पास स्वदेशी ज्ञान, शिल्प है, उनके पास संसाधनों का बहुत महत्वपूर्ण स्थायीरूपसे उपयोग करने का कौशल भी है। उन्हें बहुमूल्य वन औषधीय जड़ी-बूटियों के बारे में भी बहुत ज्यादा जानकारी है जिन्हें संरक्षित किया जाना चाहिए।

    हम 2035 तक उच्च शिक्षा में सकल नामांकन के 50 प्रतिशत के लक्ष्य को प्राप्त करने का प्रयास कर रहे हैं। दुर्भाग्य से आदिवासियों का बहुत कम प्रतिशत उच्च शिक्षा की धारा में प्रवेश कर रहा है। उदाहरण के लिए, गढ़चिरौली जिले का सकल नामांकन अनुपात 14 प्रतिशत है, जबकि राज्य का औसत 32 प्रतिशत है। अनुसूचित जनजातियों के बीच उच्च शिक्षा में ड्रॉप आउट दर 62 प्रतिशत तक है।

    मुझे लगता है कि आवासीय सुविधाएं बनाने और छात्रों को छात्रवृत्ति देने से ड्रॉप आउट दर कम होगा, और उच्च शिक्षा में उनके नामांकन और निरंतरता को बढ़ाने में काफी मदद मिलेगी।

    विश्वविद्यालयों को आदिवासी समुदायों को मुख्यधारा में लाने में भूमिका निभानी होगी। उन्हें आदिवासी संस्कृति, पहचान को बनाए रखना होगा और अपने स्वदेशी ज्ञान, बौद्धिक प्रणालियों की रक्षा करनी होगी।

    आदिवासी समुदायों की रोजमर्रा की आजीविका, स्वास्थ्य, शिक्षा और रोजगार से संबंधित महत्वपूर्ण और समसामयिक मुद्दों की पहचान पर शोध करके यह संभव हो सकता है।

    हमें सामूहिक रूप से उनके मानव विकास सूचकांकों को ऊपर उठाने का प्रयास करना चाहिए, जहां अवसर नहीं थे वहां अवसर पैदा करना चाहिए और समावेशिता के माहौल को बढ़ावा देना चाहिए।

    मैं आपसे आदिवासी बहुल गांवों के साथ संपर्क बढ़ाने, गांवों को गोद लेने और उन परियोजनाओं में निवेश करने का आग्रह करता हूं जो हमारे आदिवासी भाइयों और बहनों के जीवन की गुणवत्ता को ऊपर उठाएंगी।

    जनजातीय समुदायों के कौशल और पुन: कौशल से उनकी आय बढ़ाने में मदद मिलेगी और इसे प्राथमिकता दी जानी चाहिए।

    कृषि विश्वविद्यालयों को आदिवासी समुदायों के साथ मिलकर काम करना चाहिए और उनकी आय बढ़ाने के लिए उनका मार्गदर्शन करना चाहिए।

    इस सहभागिता में ही हमें स्थायी परिवर्तन के बीज मिलेंगे। इसके अलावा, हमें अपने आदिवासी बहनों और भाइयों को वन उपज की पैकेजिंग, विपणन और बिक्री में मदद करनी चाहिए, जिसके वे हकदार हैं। ऐसा करके, हम न केवल उनकी आर्थिक स्वतंत्रता को बढ़ावा देते हैं बल्कि हमारे बहुमूल्य प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण में हितधारक भी बनाते हैं।

    प्रगति, कुछ चुनिंदा लोगों की उपलब्धियों से नहीं, बल्कि सभी की समावेशी समृद्धि से परिभाषित होती है।

    हमारे आदिवासी समुदायों के सशक्तिकरण की दिशा में उठाया गया हर कदम महाराष्ट्र और हमारे महान राष्ट्र के लिए एक उज्जवल, अधिक न्यायसंगत भविष्य की ओर एक कदम साबित होगा।

    संक्षेप में, मैं कुलपतियों से जनजातीय समुदायों के साथ अपना जुड़ाव बढ़ाने का आह्वान करूंगा। हमें यह देखना होगा कि कौशल और पुन: कौशल से आदिवासियों और अन्य वनवासी और घुमंतू समुदायों को अपनी आय बढ़ाने में कैसे मदद मिल सकती है।

    हमें अनुसूचित जनजातियों के बीच उनके सामाजिक-आर्थिक सशक्तिकरण के उद्देश्य से विभिन्न सरकारी योजनाओं के बारे में जागरूकता पैदा करनी चाहिए।

    विभिन्न अनुसूचित जनजातियों, उनके इतिहास, विरासत, परंपराओं और कला का एक विश्वकोश बनाया जाना चाहिए।

    इनमें से कुछ मुद्दों के समाधान के लिए सभी विश्वविद्यालयों को मिलकर काम करना चाहिए और आदिवासी उत्थान के लिए एक संयुक्त रणनीति तैयार करनी चाहिए।

    आशा है कि जनजातीय अध्ययन के विभिन्न पहलुओं पर विचार-विमर्श किया जाएगा। मैं इस सेमिनार के आयोजन के लिए स्वामी रामानंद तीर्थ मराठवाड़ा विश्वविद्यालय के कुलपति को बधाई देता हूं और प्रतिभागियों को सार्थक विचार-विमर्श की शुभकामनाएं देता हूं।

    धन्यवाद
    जय हिंद। जय महाराष्ट्र।।